स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण की वर्तमान समय में प्रासंगिकता

विश्व में शायद ही ऐसा कोई अन्य उदाहरण होगा जहां किसी व्यक्ति द्वारा बोले गए शब्दों ने दर्शकों को उतना ही उत्साहित किया है जितना कि स्वामी विवेकानंद के 11 सितंबर, 1893 के विश्व धर्म संसद में दिए गए अभूतपूर्व भाषण ने। “अमेरिका की बहनों और भाइयों” इन शब्दों को सुनते ही जैसे सभा में उत्साह का तूफान आ गया और 2 मिनट तक वहां उपस्थित हजारों लोग उनके लिए खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे। पूरा सभागार करतल ध्वनि से गूॅंजायमान हो गया।

 

संवाद का ये जादू शब्दों के पीछे छिपी चिर-पुरातन भारतीय संस्कृति, सभ्यता, अध्यातम व उस युवा के त्यागमय जीवन का था, जो शिकागो से निकला व पूरे विश्व में छा गया। लगभग 3 मिनट का वो भाषण आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस समय था। उस भाषण का एक-एक शब्द अपने आप में एक परंपरा, एक जीवन व हजारों वर्षों की संत संतति से चले आ रहे संदेश का परिचायक है।

 

स्वामी विवेकानंद का शिकागो व्याख्यान एक ऐसा दर्शन था, जिसमें भारत के वसुधैव कुटुंबकम का भाव सम्माहित है। विश्व के किसी भी दर्शन में संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानने की परंपरा और विचार परिलक्षित नहीं होता, लेकिन भारत की संस्कृति में यह दर्शन पुरातन काल से सम्माहित है। विश्व के सबसे पुराने प्रामाणिक ग्रंथों में भारत का मूल समाया हुआ है। इसी मूल को स्वामी विवेकानंद जी ने अमेरिका की धरती पर फैलाने का सफल प्रयास किया।

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स्वामीजी के भाषण को वर्तमान समय में अक्सर लोगों को उन मूल्यों की याद दिलाने के लिए संदर्भित किया जाता है जो आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण हैं जैसे करुणा, भाईचारा, सहिष्णुता, स्वीकृति। जब विश्व सांप्रदायिकता, कट्टरता और उत्पीड़न की चपेट में है तो स्वामी विवेकानंद जी के भाषण को सुनने और अनुसरण करने का इससे सही समय कोई और नहीं हो सकता जिसमें इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने के लिए उन प्रमुख मूल्यों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।

 

 

विश्व में अनेक देश एक-दूसरे से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से युद्ध लड़ रहे हैं और उनके लोग जाति, रंग, पंथ की धारणाओं में बंटे हुए हैं। स्वामी जी ने अपने भाषण में विश्व शांति के लिए दो महत्वपूर्ण आवश्यकताओं पर जोर दिया था – भाईचारा और सार्वभौमिक स्वीकृति; और यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ये वही चीजें हैं जिनकी आज दुनिया को सबसे ज्यादा जरूरत है।

 

जिस समय दुनिया पंथिक, वैचारिक श्रेष्ठता के लिए लड़ रही थी और एक-दूसरे की जमीन हड़पने में व्यस्त थी, तब स्वामी विवेकानंद जी ने “नर सेवा - नारायण सेवा “ का संदेश दिया था क्योंकि वे प्रत्येक मानव में ईश्वर को देखते थे। उन्होंने न केवल भाईचारे की अवधारणा को व्यापक बनाया, बल्कि “सार्वभौमिक भाईचारे” के विषय को उठाकर इसकी प्रासंगिकता को भी समझाया, जो किसी भी प्रकार के भेदभाव के बावजूद प्रत्येक मानव आत्मा को एकरूप मानता है।

 

उन्होंने यह कहकर सभी श्रोताओं के अंतर्मन को छू लिया कि हिंदू तमाम पंथों को सर्वशक्तिमान की खोज के प्रयास के रूप में देखते हैं। वे जन्म या साहचर्य की दशा से निर्धारित होते हैं, प्रत्येक प्रगति के एक चरण को चिह्नित करते हैं। स्वामीजी द्वारा दिए गए अपने संक्षिप्त भाषण में हिंदू धर्म में निहित विश्वव्यापी एकता के तत्व और उसकी विशालता के परिचय ने पश्चिम के लोगों के मनों में सदियों से भारत के प्रति एक नकारात्मक दृष्टि को बदल कर रख दिया। उनके उस छोटे से भाषण ने ही संसद की आत्मा को हिला दिया। चारों तरफ विवेकानंद की प्रशंसा होने लगी। अमेरिकी अख़बारों ने विवेकानंद को “धर्म संसद” की सबसे बड़ी हस्ती के रूप में सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति बताया। धर्म संसद की समाप्ति के बाद वे दो वर्षों तक पूर्वी और मध्य अमेरिका, बोस्टन, शिकागो, न्यूयॉर्क, आदि जगहों पर उपदेश देते रहे।

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स्वामी विवेकानंद ने उस समय तीन भविष्यवाणियाँ की थीं। जिसमें से दो सत्य सिद्ध हो चुकी हैं और तीसरी सत्य होते हुए दिखाई देने लगी है। इसमें से पहली तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी भारत की स्वाधीनता के विषय में। 1890 के दशक में उन्होंने कहा था, “भारत अकल्पनीय परिस्थितियों के बीच अगले 50 वर्षों में ही स्वाधीन हो जाएगा” ठीक वैसा ही हुआ।

 

दूसरी भविष्यवाणी थी कि रूस में पहली बार श्रमिक क्रांति होगी, जिसके होने या हो सकने के बारे में किसी को कल्पना तक न थी। ये कथन भी सत्य सिद्ध हुआ।

 

उनकी तीसरी भविष्यवाणी थी, जिसका सत्य सिद्ध होना अभी शेष है। लेकिन ऐसा होते हुए अब दिख रहा है। वो है भारत एक बार फिर समृद्ध व शक्ति की महान उँचाइयों तक उठेगा और अपने समस्त प्राचीन गौरव को प्राप्त कर आगे बढ़ेगा। आज भारत उस पथ पर अग्रसर होता हुआ दिख भी रहा है और पूरी दुनिया स्वावलंबी, संस्कारित, संगठित तथा समृद्धशाली भारत के इस वर्चस्व को देख भी रही है व मान भी रही है।  

 

संक्षेप में स्वामी विवेकानंद ने सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का परिचय भारत को करवाया। उन्होंने हिंदुत्व को भारत की राष्ट्रीय पहचान के रूप में प्रतिष्ठित किया। यह कहना उचित होगा कि स्वामी विवेकानंद जी का पूरा जीवन और उनकी शिक्षाएं लोगों को ऊपर उठने और खुद का एक बेहतर रूप में गढ़ने का आह्वान करती हैं। 1893 का भाषण उनकी समस्त शिक्षाओं का मात्र एक सारांश है। शिकागो का भाषण इस बात की एक झलक है कि स्वामी विवेकानंद जी वास्तव में किसके लिए खड़े थे और यह सुनिश्चित करना हम सभी का दायित्व है कि हम भारत के सबसे सम्मानित पुत्रों में से एक स्वामी विवेकानंद जी की इन शिक्षाओं से लाभान्वित हों। आज विवेकानंद को जानने व 11 सितंबर, 1893 शिकागो में उनके द्वारा दिए गए भाषण को पढ़ने के साथ ही उसे गुनने की भी जरूरत है।

 

(यह लेख श्री ऋषि कुमार, शोध छात्र, हिमाचल विश्वविद्यालय, शिमला द्वारा 11 सितंबर 2022 को लिखा गया था)

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Submitted by wikiandcast on Tue, 06/13/2023 - 08:43

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स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण मिशनची स्थापना

स्वामी विवेकानंद 1897 मध्ये कोलकाता येथे परतले आणि त्यांनी रामकृष्ण मिशन, मानवतेच्या सेवेसाठी समर्पित ना-नफा संस्था स्थापन केली. हे मिशन कर्मयोगाच्या तत्त्वांवर आधारित होते, ज्याने आध्यात्मिक वाढ आणि प्राप्तीचे साधन म्हणून इतरांच्या निःस्वार्थ सेवेच्या महत्त्वावर जोर दिला.

रामकृष्ण मिशनने सामाजिक सेवेच्या विविध क्षेत्रांवर लक्ष केंद्रित केले, ज्यात शिक्षण, आरोग्यसेवा आणि मदत कार्य यांचा समावेश आहे. मिशनने गरीब आणि गरजूंना अत्यावश्यक सेवा पुरवून भारतभर अनेक शाळा, महाविद्यालये, रुग्णालये आणि मदत केंद्रे स्थापन केली.

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