Kashmiri Hindu Exodus - Three decades and the current scenario

कश्मीर भ्रमण के पश्चात 1895 में अंग्रेज़ी अधिकारी वॉल्टर लॉरंस उपरोक्त पंक्ति सिकंदर ‘बुतशिकन’ (14वीं-15वीं शताब्दी) के राज में कश्मीरी हिंदुओं को दिए गए विकल्पों को मुखरित करती है। इस्लामिक कट्टरपंथ की इस पहली आंधी में कश्मीर से अनेकों हिंदू पलायन कर गए, कईं मतांतरित हुए तथा असंख्य मारे गए। सिकंदर ने मारे गए हिंदुओं के यज्ञोपवित से 7 उंचे टीले बनाए। आज उस स्थान का नाम ‘भट्ट-मज़ार’ है। अनगिनत अनमोल धर्मग्रंथों व पांडुलिपियों को डल झील व झेलम में फैंक दिया गया। सैंकड़ों अतिप्राचीन मंदिरों व मठों को उसके निर्देश पर खण्डहर बना दिया गया, जिनमें मार्तंड सूर्य मंदिर भी था। यह कश्मीरी हिंदुओं का प्रथम नरसंहार-पलायन अवश्य था पर अंतिम नहीं! 

अब लगभग 600 वर्ष आगे आते हैं। 1980 का दशक समाप्त होते-होते कश्मीर पुनः ‘रलिव, गलिव, त्सलिव’ (मृत्यु, मतांतरण या पलायन) की पुकार से गूंज उठा। मंदिरों पर हमले शुरु हो गए। और फिर 14 सितंबर सन् 1989 (बलिदान दिवस) को श्री टीकालाल टपलु को गोलियों से छन्नी कर दिया गया। यहीं से कश्मीरी हिंदुओं के सातवें (1389-1413, 1506-1585, 1585-1753, 1753, 1931, 1986, 1989-?) व अंतिम नरसंहार का आरंभ हुआ! घाटी के हिंदुओं को चेतावनी के रूप में हर प्रभावशाली हिंदू को सुनियोजित ढंग से निशाना बनाया जाने लगा। जिनमें नीलकंठ गंजू, पी. ऐन. भट्ट, सर्वानंद कौल प्रेमी और लस्सा कौल कुछ प्रमुख नाम हैं। 19 जनवरी 1990 की रात मस्जिदों के स्पीकरों से “ऐ काफिरों, ऐ ज़ालिमों, कश्मीर हमारा छोड़ दो” का घोष सुनाई देने लगे। प्रणालीगत हिंदू विरोधी हत्याओं, बलात्कारों, यातनाओं व पलायन का सिलसिला सातवीं बार पुनः शुरु होता है। 

हिंदुओं को जिस तरह से प्रताड़ित किया गया और उनकी हत्या की गई वह वृतांत रोंगटे खड़े कर देते हैं। पीड़ितों को मारने से पहले आतंकवादियों द्वारा अमानवीय बलात्कार, अंगों को काटना, आंखों को निकालना, होंठों को सिलना, तिलक पर कील ठोकने जैसी कईं भीषण यातनाएं दी जाती थीं। कई शव झेलम में तैरते और पेड़ों पर लटकते पाए जाते थे। 1990 में एक स्कूल शिक्षिका सुश्री गिरिजा टीकू का सामुहिक बलात्कार और हत्या ऐसा ही एक उदाहरण है। उनके बलात्कार के पश्चात जिहादी आतंकियों ने जीवित ही आरे से उनका एक-एक अंग काटा था! गृह मंत्रालय, भारत सरकार की रिपोर्ट के अनुसार कश्मीर में 1990 और जनवरी 2005 के बीच ऐसी कुल 61935 घटनाएं हुईं। अनुमान है कि इसमें 12,542 नागरिक और 4116 सुरक्षा कर्मी मारे गए।  हिंदुओं की संपत्ति हड़प ली गई, घरों को लूट लिया गया और कई इलाकों को जला दिया गया। इस काल में सैंकड़ों मंदिरों का विनाश और तोड़फोड़ भी देखी गई जिनका विवरण इस पर्चे के दायरे से बाहर होगा।

रातों-रात लाखों लोगों को अपने ही देश में बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित कर शरणार्थी बना दिया गया। न्याय पाने और घर वापस जाने के सपने को साकार करने के संघर्ष में करीब दो पीढ़ियां गुजर चुकी हैं। विभाजन के बाद यह किसी भी विशेष समुदाय का सबसे बड़ा जबरन पलायन था। शर्म की बात तो यह है कि 2019 तक इस नरसंहार के किसी भी दोषी पर कोई पुलिस कार्यवाही नहीं की गई थी। हाल ही में अजय पंडित व राकेश पंडित सोमनाथ जैसी दर्जनों नृशंस हत्याएं यह संकेत करती हैं कि समस्या अभी तक पूर्णतः टली नहीं है। कहते हैं कि जब भी कोई समाज अपने निंदनीय इतिहास को पूर्णतः स्वीकार करके उन समस्याओं पर काम नहीं करता तब तक उस इतिहास के दोहराये जाने का खतरा बना रहता है।

आज अनुछेद 370 के निष्क्रीय होने के पश्चात घाटी में स्थितियों सुधर रही है। पत्थरबाज़ी की कोई घटना नहीं होती, कट्टरपंथी इस्लामी नेताओं पर लगाम है व आतंकवाद पर ‘ऑल-आउट’ प्रहार हो रहा है। पलायन कर चुके कश्मीरी हिंदुओं की पुनर्सथापना पर आधिकारिक रूप से नीति क्रियान्वयित की जा रही है। पर इस सुख की घड़ी में हमें हमारे असंख्य कश्मीरी भाईयों तथा बहनों के छः शताब्दियों तक दिए गए बलिदानों को विस्मृत नहीं होने देना है। यह उदासीन स्मृति कोई प्रतिक्रियात्मक वैमनस्य पोषित करने हेतु नहीं अपितु इतिहास से सीखने के लिए आवश्यंभावी है। यदि आठवें कश्मीरी हिंदू पलायन-नरसंहार को भविष्य में होने से रोकना है तो 19 जनवरी 1989 की कष्टदायक तिथि हम भूल नहीं सकते। आज आवश्यकता है उन सात पलायन-नरसंहारों के शर्मनाक इतिहास पर एक प्रबुद्ध चर्चा खड़ी करनी की। उस चर्चा से ही भारतीय समाज उन प्रमालीगत नृशंसतम कृत्यों के मूल वैचारिक बिंदुओं को समझ पाएगा। और ऐसी प्रौढ़ समझ से ही शांतिप्रिय समाधानों की राह प्रशस्त होगी।

(यह लेख श्री अर्जुन आनंद, शोध विद्यार्थी, जेएनयू, ने कश्मीरी हिंदू पलायन दिवस की 33वीं वर्षगांठ पर लिखा था)

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